Bihar Board 12th Sociologh Model Set-5 2024: आप भी बिहार बोर्ड की तरफ से 2024 में एग्जाम देने वाले हैं तो आपके लिए खुशखबरी आ गया है आप सभी के लिए महत्वपूर्ण Model Set-5 Sociology Questions Answer, New Link, BSEB EXAM
Bihar Board 12th Sociologh Model Set-5 2024:
खण्ड-स (दीर्घ उत्तरीय प्रश्न )
प्रश्न 1. पश्चिमीकरण की अवधारणा स्पष्ट करें।
उत्तर पश्चिमीकरण शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है पश्चिमी सभ्यता एवं जीवन शैली का किसी गैर पश्चिमी समाज द्वारा अनुकरण वैसे विश्वास भारतीय समाजशास्त्री एम. एन. श्रीनिवास ने इस आवधारण का प्रयोग मुख्यतः करीब 200 वर्षों के ब्रिटिश शासन के फलस्वरूप भारतीय समाज के विभिन्न पक्षों पर पड़नेवाले प्रभावों के संदर्भ में ही किया है। वस्तुतः पश्चिमीकरण की प्रक्रिया ने भारतीय समाज के सभी पक्षों को व्यापक रूप से प्रभावित किया है। अध्ययन की सुविधा के लिए पश्चिमीकरण के कुछ महत्त्वपूर्ण प्रभावों को हम निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत विवेचना कर सकते हैं।
(i) शिक्षा के क्षेत्र में समकालीन भारतीय समाज में आधुनिक शिक्षा पद्धति को लागू करने का श्रेय अंग्रेजी प्रशासन को ही जाता है। अंग्रेजों के आगमन से पहले भारतीय शिक्षा व्यवस्था बहुत हद तक पारंपरिक धर्म प्रधान तथा समाज के वर्ग विशेष तक सीमित थी । अंग्रेजी प्रशासन के दौरान शिक्षण संस्थाओं को न केवल सभी जाति, वर्ग, धर्म एवं लिंग के सदस्यों के लिए खोल दिया गया, बल्कि शिक्षा दी जानेवाली विषयवस्तुओं एवं ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में मूलभूत परिवर्तन आ गया, विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के साथ-साथ सामाजिक विज्ञान की शाखाओं को विद्यालय एवं महाविद्यालयों में प्रस्तुत किया गया, उसी प्रकार शिक्षकों का चुनाव उनकी जाति एवं धर्म के आधार पर न होकर उनकी योग्यता के आधार पर किया गया ।
(ii) न्याय व्यवस्था के क्षेत्र में अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भारतीय न्याय व्यवस्था न सिर्फ पारंपरिक थी बल्कि आधुनिक दृष्टि से अत्यन्त त्रुटिपूर्ण थी। व्यक्ति विशेष के धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर दंड का निर्धारण होता था । इसलिए एक ही अपराध के लिए भिन्न-भिन्न व्यक्तियों को भिन्न सजा दी जाती थी। अंग्रेजी प्रशासन ने ही सर्वप्रथम यह घोषणा की कि न्याय के समक्ष सभी बराबर हैं ।
(iii) वेशभूषा एवं खान-पान के क्षेत्र में पश्चिमीकरण के फलस्वरूप भारतीय समाज के वेषभूषा एवं खान-पान में महत्वपूर्ण परिवर्तन आया । आज भारतीय समाज में जो वेशभूषा प्रयोग में लाया जाता है, वह पश्चिमी वेशभूषा ही है। साथ ही भारतीय खान-पान में आज पश्चिम व्यंजनों का भरपूर प्रयोग देखा जा रहा हैं
अथवा
2001 की जनगणना के संदर्भ में भारतीय आबादी की प्रमुख विशेषताओं की चर्चा करें।
उत्तर- भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सन् 1951 में यहाँ की जनसंख्या 36.10 करोड़ थी इसके बाद जनसंख्या में बहुत तेजी से वृद्धि होने लगी । सन् 2001 की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या 102.87 करोड़ से भी अधि क हो चुकी थी । गैर-सरकारी अनुमानों के अनुसार सन् 2009 तक हमारे समाज की जनसंख्या लगभग 116.00 करोड़ हो चुकी है। परिवार नियोजन के बड़े-बड़े प्रयत्नों के बाद भी प्रतिवर्ष लगभग 1.80 करोड़ जनसंख्या बढ़ जाती है। एक वर्ष में बढ़ने वाली यह जनसंख्या आस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या के बराबर है । अनेक अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि हमारे समाज में व्यापक निरक्षरता, नीचा जीवन स्तर संयुक्त परिवार व्यवस्था, बाल विवाह का प्रचलन पुत्र जन्म की कामना तथा बहु-पत्नी विवाह तेजी से बढ़ी हुई जनसंख्या के प्रमुख कारण हैं ।
‘जनसंख्या विस्फोट’ की स्थिति-जनसंख्या विस्फोट की अवधारणा वर्तमान युग की देन है जिसका सीधा सा अर्थ है, ‘बच्चों की बाद’, ‘जनाधि क्य’ या ‘जनसंख्या की अत्यधिक वृद्धि’ । सी० पी० ब्लेकर के अनुसार, “जनसंख्या विस्फोट की अवस्था में जन्म दर उच्चस्तर का किन्तु हासोन्मुखी होता है, किन्तु मृत्यु दर में ह्रास निम्नस्तरीय होने से जनसंख्या वृद्धि का आकार विस्फोटक हो जाता है।” जनसंख्या विस्फोट या तीव्र जनसंख्या वृद्धि का
आर्थिक विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है । वर्तमान में भारत जनसंख्या विस्फोट की स्थिति से गुजर रहा है। इस समय भारत की शुद्ध जनसंख्या वृद्धि की दर 18 मिलियन व्यक्ति प्रति वर्ष है, जो लगभग ऑस्ट्रेलिया की जनसंख्या के बराबर है अर्थात् जनसंख्या की दृष्टि से भारत में एक ऑस्ट्रेलिया प्रति वर्ष जुड़ जाता है ।
प्रश्न 2. बाजार किस प्रकार एक सामाजिक संस्था है ?
उत्तर- बाजार सभी तरह के सरल, जटिल और आधुनिक समाजों की विशेषता रही है। अर्थशास्त्री जहाँ यह मानते हैं कि बाजार और अर्थव्यवस्था से व्यक्ति का सामाजिक जीवन प्रभावित होता है, वहीं खम, मैक्स वेवर चैवलिन जैसे अनेक दूसरे समाजशास्त्रियों ने यह स्पष्ट किया है कि विभिन्न सामाजिक मूल्य, धार्मिक विश्वास और पारिवारिक दशाएँ आर्थिक प्रक्रियाओं को प्रभावित करती हैं। फलस्वरूप समाजशास्त्री बाजार को एक सामाजिक संस्था के रूप में स्पष्ट करते हैं।
साधारणतया बाजार को केवल एक आर्थिक व्यवस्था के रूप में देखा जाता है, लेकिन मूल रूप से बाजार एक सामाजिक संस्था है। बाजार को संचालित करने वाले नियमों से जुड़ी हुई नैतिकता तथा आर्थिक क्रियाओं पर सरकार का नियन्त्रण, सामाजिक श्रम विभाजन, आर्थिक क्रियाओं पर सामाजिक मूल्यों का प्रभाव, समाज विरोधी वस्तुओं का बहिष्कार वस्तुओं के मूल्य पर सामाजिक उपयोगिता का प्रभाव आदि ऐसी विशेषताएँ हैं जो बाजार को एक सामाजिक संस्था का रूप प्रदान करती हैं।
बाजार में प्रत्येक वस्तु का मूल्य उसकी उपयोगिता से निर्धारित होता है। कौन-सी वस्तु हमारे लिए कितनी उपयोगी है इसका निर्धारण हमारी सांस्कृतिक विशेषताओं और सामाजिक मूल्यों से होता है। उदाहरण के लिए, जरी के वस्त्रों का भारतीय संस्कृति में विशेष महत्त्व है। इस कारण भारत में इन वस्त्रों के लिए जो बाजार विकसित हो सकता है, वह यूरोप के देशों में होना सम्भव नहीं है।
अथवा
जाति व्यवस्था बन्द व्यवस्था है लेकिन वर्ग खुला व्यवस्था है। कैसे ?
उत्तर- जाति की उत्पत्ति जन्म से हुई है। संसार के विभिन्न समाजों में जहाँ कहीं भी जन्म, वंश अथवा प्रजातीय भेदभाव के आधार पर एक दूसरे से ऊँच और नीच समूहों का निर्माण होता है वहीं उन्हें एक-एक जाति के रूप में देखा जाता है। इस प्रकार जन्म पर आधारित सदस्यता तथा अन्तर्विवाह को दो प्रमुख विशेषताएँ मानते हुए केतकर ने इसे परिभाषित किया है “जाति एक ऐसा सामाजिक समूह है जिसकी सदस्यता उन्हीं लोगों को मिलती है जिनहोंने उसी समूह में जन्म लिया हो तथा जिसके सदस्यों पर एक दृढ सामाजिक नियम के द्वारा अपने समूह से बाहर विवाह करने पर नियंत्रण लगा दिया जाता है ।
मजूमदार तथा मदाम के अनुसार ‘जाति एक बन्द वर्ग है। इससे स्पष्ट होता है कि जब किसी समूह के सदस्यों की सामाजिक आर्थिक स्थिति समान होती है लेकिन उन्हें अपनी उस स्थिति में किसी तरह का परिवर्तन करने की अनुमति नहीं दी जाती तब उसी समूह अथवा वर्ग को एक जाति कहा जा सकता है। अर्थात् जब एक वर्ग पूर्णतया वंशानुक्रम पर आधारित होता है तो हम उसे एक जाति कहते हैं।
किंतु वर्ग खुली व्यवस्था है कुछ विद्वान समाज को उच्च, मध्यम और निम्न वर्गों में विभाजित करते हैं। जबकि व्यवसाय के आधार पर विद्वानों ने इन्हें कृषक वर्ग, श्रमिक वर्ग व्यापारिक वर्ग, व्यावसायिक वर्ग तथा उद्योगपति वर्ग आदि में विभाजित किया है। इन सभी वर्गों की मुख्य विशेषता अपने वर्ग के लिए अधिक से अधिक लाभ प्राप्त करना तथा दूसरे वर्गों के विरुद्ध अपने आपको सुरक्षित बनाना है । प्रत्येक वर्ग अधिक से अधिक अधिकार और सुविधाएँ पाने के लिए दूसरे वर्ग से संघर्ष करता रहता है। यह सामाजिक स्तरीकरण का एक विशेष रूप को स्पष्ट करता है। आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होने पर ये वर्ग समाज में ऊंचे व प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त कर लेते हैं। जाति व्यवस्था के परम्परागत संस्तरण में इन जातियों का स्थान बहुत नीचा होने के बाद भी आज यह शक्तिशाली आर्थिक और राजनीतिक वर्ग के रूप में बदल गई है।
उपरोक्त परिप्रेक्ष्य में हम कह सकते हैं कि जाति व्यवस्था बंद व्यवस्था है लेकिन वर्ग खुला व्यवस्था है.
प्रश्न 3. भारत में श्रमिक संघों का विकास और उनकी भूमिका बताइए
उत्तर-भारत में भी अन्य विकासशील देशों की भाँति अनेक श्रमिक संघ सक्रिय रहे हैं-
1. भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस ।
2. अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस ।
3. हिन्द मजदूर सभा।
4. संयुक्त श्रमिक संघ ।
5. सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन्स।
6. भारतीय मजदूर संघ ।
7. राष्ट्रीय मजदूर संगठन ।
8. संयुक्त श्रमिक संघ कांग्रेस (L.S.) ।
9. भारतीय श्रमिक संघों का राष्ट्रीय मोर्चा । ट्रेड यूनियनों का देश की राजनीति पर अत्यंत प्रभाव है, परन्तु वे अभी तक अपने स्वतंत्र अस्तित्व का विकास नहीं कर सके हैं और न ही अपनी कोई सर्वमान्य आचारसंहिता बना सके हैं। अतः ट्रेड यूनियन न तो पूरी तरह दबाव समूह की ही भूमिका निभाते हैं और न ही राजनीतिक दलों की तरह कार्य करते हैं। ट्रेड यूनियनों का अभी तक केवल श्रमिक वर्ग के एक छोटे से भाग में ही अस्तित्व है। श्रमिकों का एक बड़ा भाग ग्रामीण क्षेत्रों में रहता है जो प्रायः असंगठित है, परन्तु संगठित श्रमिक जो प्रायः महानगरों में रहते हैं उनके संघों (यूनियन्स) ने सामाजिक और राजनीतिक जागरूकता पैदा करने में तथा सरकारी नीतियों को प्रभावित करने में अहम् भूमिका निभायी है। श्रमिक संघों की शक्तिशाली भूमिका के कारण ही कोई भी सरकार उनके हितों की अनदेखी करने की स्थिति में नहीं होती है।
अथवा
हाल के वर्षों में पचायती राज व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए क्या प्रयास किए गए ?
उत्तर- बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशों के आधार पर भारत में पंचायती राज व्यवस्था की तीनस्तरीय प्रणाली को लागू किया गया है। गाँव पंचायत, खंड समिति और जिला परिषद के स्तर पर भारत में पंचायतों की स्थापना की गई। कुछ राज्यों में पंचायतों का विकासात्मक कार्य उल्लेखनीय रहा, परंतु कुछ राज्यों में पंचायतों ने केवल शक्ति पर अधिकार संबंधी विवादों और प्रतिस्पर्धाओं को जन्म दिया इनसे समाज के कमजोर वर्गों को लाभ प्राप्त नहीं हुआ। सरकारी अधिकारियों ने पंचायत प्रतिनिधियों पर अंकुश लागए रखा जिससे पंचायती राज संस्थाओं में लोगों की रुचि कम हो गई ।
पंचायत पर संविधान का 73वाँ संशाधन अधिनियम 1992 में पास किया गया। 24 अप्रैल, 1993 से यह संशोधन प्रभावी हो गया। यह संशोधन जनता को शक्ति संपन्न करने के सिद्धांत पर आधारित है और पंचायतों को संवैधानिक गांरटी प्रदान करता है । इस अधिनियम के प्रमुख पक्ष निम्नलिखित हैं-
1. यह पंचायतों को स्वशासी संस्थाओं के रूप में स्वीकार करता है।
2. यह पंचायतों को आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए योजना बनाने हेतु शक्ति और उत्तरदायित्व प्रदान करता है।
3. यह 20 लाख से अधिक जनसंख्या वाले सभी राज्यों, ब्लॉक और जिला स्तर पर समान त्रिस्तरीय शक्ति संपन्न पंचायतों की स्थापना के लिए प्रबंध करता है ।
4. यह पंचायतों के संगठन, अधिकार और कार्यों, वित्तीय व्यवस्था तथा चुनावों एवं समाज के कमजोर वर्गों के लिए पंचायत के विभिन्न स्तरों पर स्थानों के आरक्षण के लिए दिशा-निर्देश देता है ।
संविधान के 73वें संशोधन से स्वशासन में लोगों की भागीदारी के लिए संवैधानिक गारंटी प्रदान की गई ।
पंचायत अधिनियम 1996 के अनुसार देश के विभिन्न राज्यों में जनजातीय क्षेत्रों में भी पंचायतों के गठन कार्य को प्रभावी बना दिया गया है।
प्रश्न 4. एकीकरण और आत्मसातीकरण’ का उल्लेख कीजिए इनकी विभिन्न नीतियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर- आत्मसातीकरण-सांस्कृतिक एकीकरण और समजातोयता की एक प्रक्रिया जिसके द्वारा नए शामिल हुए या अधीनस्थ समूह अपनी विशिष्ट संस्कृति को खो देते है प्रभुत्वशाली बहुसंख्यकों की संस्कृति को अपना लेते हैं। आत्मसात्मीकरण जबरदस्ती भी करवाया जा सकता है और यह ऐचिछक भी हो सकता है एवं सामान्यतः यह अधूरा होता है, जहाँ अधीनस्थ या शामिल होने वाले समूह को समान शर्तों पर पूर्ण सदस्यता प्रदान नहीं की जाती। उदाहरण के तौर पर प्रभुत्वशाली बहुसंख्यकों द्वारा एक प्रवासी समुदाय के साथ भेदभाव करना और परस्पर विवाह की अनुमति नहीं देना ।
एकीकरण-सांस्कृतिक जुड़ाव की एक प्रक्रिया जिसके द्वारा सांस्कृतिक विभेद निजी क्षेत्र में चले जाते हैं और एक सामान्य सार्वजनिक संस्कृति सभी समूहों द्वारा अपना ली जाती है। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत आमतौर पर प्रबल या प्रभावशाली समूह की संस्कृति को ही आधिकारिक संस्कृति के रूप में अपनाया जाता है। सांस्कृतिक अंतरों, विभेदों या विशिष्टताओं की अभिव्यक्ति को प्रोत्साहित नहीं किया जाता।
एकीकरण की नीतियाँ केवल एक अकेली राष्ट्रीय पहचान बनाए रखती है जिसके लिए वे सार्वजनिक तथा राजनीतिक कार्यक्षेत्रों से गुजातीय राष्ट्रीय और सांस्कृतिक विभिन्नताओं को दूर करने का प्रयत्न करती है। परन्तु आत्मसातीकरण की नीतियों के अन्तर्गत धार्मिक व भाषाई समूहों की पहचानों को दबा दिया जाता है।
‘आत्मसातीकरणवादी’ और ‘एकीकरणवादी’ राजनीतियों की विभिन्न नीतियाँ इस प्रकार हैं-
(1) प्रभावशाली समूह के इतिहास, शूरवीरों और संस्कृति को सम्मान प्रदान करने वाले राज्य प्रतीकों को अपनाना, राष्ट्रीय पर्व, सड़कों के नाम निर्धारित करते समय इन्हीं बातों का ध्यान रखना ।
(2) प्रभावशाली समूह की भाषा को एकमात्र राजकीय ‘राष्ट्रभाषा’ के रूप में अपनाना और उसके प्रयोग को सभी सार्वजनिक संस्थाओं में अनिवार्य बना देना ।
(3) प्रभावशाली समूह की भाषा और संस्कृति को राष्ट्रीय संस्थाओं के जरिए, जिनमें राज्य नियंत्रित जनसंपर्क के माध्यम और शैक्षिक संस्थाएँ शामिल हैं, को बढ़ावा देना।
(4) सम्पूर्ण शक्ति को ऐसे मंचों में केंद्रित करना जहाँ प्रभावशाली समूह बहुसंख्यक हो और स्थानीय या अल्पसंख्यक समूहों की स्वायत्तता की मिटाना ।
(5) प्रभावशाली समूह की परम्पराओं पर आधारित एक एकीकृत कानून एवं न्याय व्यवस्था को थोपना और अन्य समूहों द्वारा प्रयुक्त वैकल्पिक व्यवस्थाओं को खत्म कर देना ।
(6) अल्पसंख्यक समूहों और देशज लोगों से जमीनें, जंगल एवं मत्स्य क्षेत्र छीनकर उन्हें ‘राष्ट्रीय संसाधन’ घोषित कर देना ।
अथवा धर्मनिरपेक्षता से आप क्या समझते हैं ? अल्पसंख्यकों के संरक्षण के संदर्भ में अपने विचार प्रकट कीजिए। उत्तर- धर्मनिरपेक्षता या धर्मनिरपेक्षवाद सामाजिक और राजनीतिक सिद्धांत में प्रस्तुत सर्वाधिक जटिल शब्दों में से एक है। पाश्चात्य संदर्भ में इन शब्दों का मुख्य भाव चर्च और राज्य की पृथक्ता का द्योतक है। धार्मिक और राजनीतिक सत्ता के पृथक्करण ने पश्चिम के सामाजिक इतिहास में एक बड़ा मोड ला दिया। यह पृथक्करण धर्मनिरपेक्षीकरण या जनजीवन से धर्म के उत्तरीतर पीछे हट जाने की प्रक्रिया से संबंधित था, क्योंकि अब धर्म को एक अनिवार्य दायित्व की बजाय स्वैच्छिक व्यक्तिगत व्यवहार के रूप में बदल दिया गया था। धर्मनिरपेक्षोकरण स्वयं आधुनिकता के आगमन और विश्व को समझने के धार्मिक तरीकों के विकल्प के रूप में विज्ञान तथा तर्कशक्ति के उदय से संबंधित था।
धर्मनिरपेक्ष और धर्मनिरपेक्षता के भारतीय अर्थों में उनके पश्चिमी भावार्थ तो शामिल हैं हो, पर उनमें कुछ और भाव भी जुड़े हैं। रोजमर्रा की भाषा में, धर्मनिरपेक्ष का सर्वाधिक सामान्य प्रयोग सांप्रदायिक’ के बिल्कुल विपरीत किया जाता है। इस प्रकार, एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति या राज्य वह होता है जो किसी विशेष धर्म का अन्य धर्मों की तुलना में पक्ष नहीं लेता। इस भाव में धर्मनिरपेक्षता धार्मिक उग्रवाद का विरोधी भाव है। राज्य और धर्म के पारस्परिक संबंधों की दृष्टि से, धर्मनिरपेक्षता का यह भाव सभी धर्मों के प्रति
समान आदर का द्योतक होता है, न कि अलगाव या दूरी का पाश्चात्य भाव के राज्य के सभी धर्मों से दूरी बनाए रखने और भारतीय भाव के राज्य के सभी धर्मों को समान आदर देने के कारण दोनों के बीच तनाव से एक तरह की कठिन स्थिति पैदा हो गई है। प्रत्येक भाव के समर्थक विचलित हो जाते हैं जब राज्य दूसरे भाव का समर्थन करने के लिए कुछ करता है। भारतीय राज्य द्वारा धर्मनिरपेक्षता के लिए प्रतिबद्ध होने और साथ-साथ अल्पसंख्यकों के संरक्षण का वचन दिए जाने के बीच के तनाव के कारण भी कुछ अन्य प्रकार की जटिलताएँ उत्पन्न हो जाती हैं। अल्पसंख्यकों के संरक्षण के लिए यह आवश्यक है कि उनका एक ऐसे संदर्भ में विशेष ध्यान रखा जाए,
जहाँ राजनीतिक व्यवस्था के सामान्य काम-काज में उन्हें बहुसंख्यक समुदाय की तुलना में हानि पहुँचती हो। लेकिन ऐसा संरक्षण दिए जाने से तुरंत ही अल्पसंख्यकों के पक्षपात या ‘तुष्टीकरण’ का आरोप लगता है। विरोधी यह तर्क देते हैं कि इस प्रकार की धर्मनिरपेक्षता अल्पसंख्यकों के मत प्राप्त करने या उनसे अन्य प्रकार का समर्थन लेने के लिए उन्हें अपने पक्ष में लाने का एक बहाना मात्र है। समर्थक यह दलील देते हैं कि ऐसे विशेष संरक्षण के बिना तो धर्मनिरपेक्षतावाद अल्पसंख्यकों पर बहुसंख्यक समुदाय के मूल्यों एवं प्रतिमानों को थोपने का एक बहाना बन सकता है।
इस प्रकार के विवादों का समाधान उस समय और भी अधिक कठिन हो जाता है जब राजनीतिक दल अथवा सामाजिक आंदोलन अपने निहित स्वार्थी के कारण उन्हें हल नहीं होने देते बल्कि उन्हें बनाए रखना चाहते हैं। हाल के समय में सभी धर्मों के सम्प्रदायवादियों ने गतिरोध बनाए रखने में योगदान दिया है। हिंदू सम्प्रदायवादियों के पुनरुत्थान और नवार्जित राजनीतिक शक्ति के कारण इस जटिल स्थिति में एक और आयाम जुड़ गया है। साफ तौर पर एक नीति के रूप में धर्मनिरपेक्षता एक सिद्धांत के रूप में और हमारे व्यवहार में इसकी समझ को बेहतर बनाने के लिए बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। परन्तु इन सबके बावजूद, यह अब भी सच है कि भारत का संविधान और कानूनी संरचना विभिन्न प्रकार के सम्प्रदायवाद द्वारा उत्पन्न की गई समस्याओं से निपटने के लिए काफी कुछ प्रभावकारी साबित हुई है।
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