BSEB 12th History Top-5 Question 2024: दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Questions )सभी स्टूडेंट 2024 में 12वीं का एग्जाम देने वाले हैं या सेंटअप एग्जाम देने वाले हैं, Important Question, BSEB EXAM

BSEB 12th History Top-5 Question 2024

BSEB 12th History Top-5 Question 2024: दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Questions )सभी स्टूडेंट 2024 में 12वीं का एग्जाम देने वाले हैं या सेंटअप एग्जाम देने वाले हैं, Important Question, BSEB EXAM

BSEB 12th History Top-5 Question 2024:

Q.1. विजयनगर के शासक कृष्णदेव राय पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें। (Write an essay on Vijaynagar ruler Krishna Deva Raya.)
Ans. कृष्णदेव राय विजयनगर साम्राज्य के तुलवा वंश का सबसे महान राजा था। वह 1509 ई0 में गद्दी पर बैठा। वह एक महान योद्धा तथा उत्साही शासक था, उसने मैसूर के राज्य के कुछ भाग पर विजय प्राप्त की। उड़ीसा के राजा को परास्त करके उसकी बेटी से विवाह किया।
1530 ई० में उसने बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह को परास्त किया। इस विजय के परिणामस्वरूप दक्षिण के मुस्लिम शासकों में फिर कभी विजयनगर पर कृष्ण देवराय शासनकाल में आक्रमण करने का साहस नहीं किया। राजा कृष्णदेव राय के पुर्तगाल से भी मैत्रीपूर्ण संबंध था।

राजा कृष्णदेव राय न केवल एक महान विजेता था, बल्कि वह एक कुशल शासक भी था। इसकी धार्मिक नीति बहुत उदार थी। वह स्वयं वैष्णव धर्म का अनुयायी था किन्तु अन्य धर्मानुयायियों के साथ भी उसका व्यवहार बहुत अच्छा था। उसको साहित्य से बहुत प्रेम था. स्वयं विद्वान होने के साथ-साथ विद्वानों का आदर करता था। उसकी राज-सभा में आठ प्रतिशत कवि ‘अष्टदिग्गज’ के नाम से प्रसिद्ध थे। 1530 ई० में इस महान शासक की मृत्यु हो गयी। इस महान शासक के संबंध में पुर्तगाली यात्री ‘पीज’ ने ठीक ही कहा है कि वह इतना विद्वान तथा पूर्ण शासक है जितना होना असंभव है, वह विदेशियों को सम्मानित करता है, वह एक महान तथा न्यायप्रिय शासक है. अपने पद, सेना, तथा भूमि की दृष्टि से वह किसी भी सम्राट से बढ़कर है।

Q.2. विजयनगर साम्राज्य के उत्थान एवं पतन का वर्णन करें। [2017,2018] (Describe the rising and downfall of Vijaynagar empire.)
Ans. विजयनगर राज्य का चरमोत्कर्ष राजनीति में सत्ता के दावेदारों में शासकीय वंश के सदस्य तथा सैनिक कमांडर शामिल थे। पहला राजवंश, जो संगम वंश कहलाता था, ने 1485 ई० तक नियंत्रण रखा। उन्हें सुलुवों ने उखाड़ फेंका, जो सैनिक कमांडर थे और वे 1503 ई० तक सत्ता में रहे। इसके बाद तुलुवा ने उनका स्थान लिया। कृष्णदेव राय तुलुव वंश से ही संबद्ध था।
कृष्णदेव राय के काल में विजयनगर : कृष्णदेव राय के शासन की चारित्रिक विशेषता विस्तार और दृढ़ीकरण था। इसी काल में तुंगभद्रा और कृष्णा नदियों के बीच का क्षेत्र (रायचूर दोआब ) हासिल किया गया (1512), उड़ीसा के शासकों का दमन किया गया (1514 ) तथा बीजापुर के सुल्तान को बुरी तरह पराजित किया गया था (1520)। हालांकि राज्य हमेशा सामरिक रूप से तैयार रहता था, लेकिन फिर भी यह अतुलनीय शांति और समृद्धि की स्थितियों में फला-फूला। कुछ बेहतरीन मंदिरों के निर्माण तथा कई महत्वपूर्ण दक्षिण भारतीय मंदिरों में भव्य गोपुरमा को जोड़ने का श्रेय कृष्णदेव को ही जाता है। उसने अपनी माँ के नाम पर विजयनगर के समीप ही नगलपुरम नामक उपनगर की स्थापना भी की थी। विजयनगर के संदर्भ में सबसे विस्तृत विवरण कृष्णदेव राय के या उसके तुरंत बाद के कालो से प्राप्त होते है।
विजयनगर कृष्णदेव राज्य की मृत्यु के उपरान्त : कृष्णदेव राय की मृत्यु के पश्चात 1529 ईo में राजकीय ढाँचे में तनाव उत्पन होने लगा। उसके उत्तराधिकारियों को विद्रोही नायको या सेनापतियों से चुनौतीयों का सामना करना पड़ा। 1524 ई० तक केन्द्र पर नियंत्रण एक अन्य राजकीय वंश, अराबिदु के हाथों में चला गया, जो सत्रहवी शताब्दी के अंत तक सत्ता पर काबिज रहे। पहले की तरह इस काल में भी विजयनगर शासको और साथ ही दक्कन सल्तनतों के शासकों की सामरिक महत्वाकांक्षाओं के चलते समीकरण बदलते रहे। अंततः यह स्थिति विजयनगर के विरुद्ध दक्कन सल्तनतों के बीच मैत्री-समझौते के रूप में परिणत हुई ।

विजयनगर का पतन : 1565 ई० में विजयनगर की सेना प्रधानमंत्री रामराय के नेतृत्व में राक्षसी तांगड़ी (जिसे तालीकोटा के नाम से भी जाना जाता है) के युद्ध में उत्तरी जहाँ उसे बीजापुर, अहमदनगर तथा गोलकुण्डा की संयुक्त सेनाओं द्वारा करारी शिकस्त मिली। विजयी सेनाओं ने विजयनगर शहर पर धावा बोलकर उसे लूटा। कुछ ही वर्षों के भीतर यह पूरी तरह से उजड़ गया। अब साम्राजय का केन्द्र पूर्व की ओर स्थानांतरित हो गया जहाँ अराविदु राजवंश ने पेनुकोण्डा से और बाद में चन्द्रगिरि (तिरुपति के समीप) से शासन किया।

Q.3. गौतम बुद्ध के जीवन और उपदेशों पर प्रकाश डालें। V.V.I.
(Discuss the life and teaching of Gautam Buddha.)
Ans. महात्मा बुद्ध बौद्ध धर्म के संस्थापक थे। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था। इनके पिता का नाम शुद्धोदन और माता का नाम माया देवी था। शुद्धोदन नेपाल की तराई में स्थित शाक्यवंश के राजा थे। शाक्यों की राजधानी कपिलवस्तु थी। प्रौढावस्था में 563 ई० पूर्व माया देवी के यहाँ सिद्धार्थ ने जन्म लिया। जन्म के सातवें दिन उनकी माता का स्वर्गवास हो गया। अस्तु, सिद्धार्थ का पालन-पोषण माया देवी की छोटी बहन तथा महाराज शुद्धोदन की छोटी रानी महाप्रजापति ने किया। राजकुमार के जन्म के कुछ दिनों पश्चात् एक अति वृद्ध ऋषि असित उन्हें देखने आये। उन्होंने स्पष्ट किया कि राजकुमार के शरीर में एक महान आत्मा का निवास है। यह बड़ा होकर एक बहुत बड़े धर्म की स्थापना करके लाखों व्यक्तियों को सांसारिक बन्धनों से छुड़ाकर मुक्ति दिलायेगा। इसका नाम संसार में सदा के लिए अमर रहेगा।
वौद्धधर्म के उपदेश उस समय की धार्मिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए बुद्ध को व्यावहारिक सुधारक कहा जा सकता है। गौतम बुद्ध ने ‘मध्यम प्रतिपदा’ या ‘मध्यम मार्ग’ को अपने उपदेश का आधार बनाया। यह मार्ग न बहुत कठिन है और न बहुत सरल, अपितु यह कल्याणकारी मार्ग है। इन्होंने मनुष्य के वंश और जाति पर नहीं, बल्कि कर्म पर विशेष बल दिया। यह बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय के सिद्धांत में विश्वास रखते थे। इन्होंने आत्मा तथा परमात्मा जैसे विवादग्रस्त विषयों में न पड़कर संसार की समस्याओं को सुलझाने तथा दुःख से छुटकारा पाने के उपायों को बताया।

नैतिक शिक्षाएँ (चार आर्यसत्य) : गौतम बुद्ध ने चार आर्यसत्यों तथा अष्टांगिक मार्गो पर चलने का उपदेश दिया।
चार आर्यसत्य–(i) संसार में दुःख ही दुःख है- यह संसार दुःखमय है। (ii) दुःख की जननी तृष्णा है- तृष्णा के कारण ही अहंकार, ममता, राग-द्वेष, कलह आदि उत्पन्न होते हैं और यह दुःख का कारण होता है। (iii) तृष्णा के नाश से दुःख का नाश संभव है-तृष्णा का अंत हो जाने पर मानव दुःखरहित हो जाता है। (iv) तृष्णा का नाश अष्टांगिक मार्ग से संभव है।
गौतम बुद्ध ने बताया कि दुःख से मुक्ति मिलने के बाद प्राणी को निर्वाण की प्राप्ति होती है। इसके लिए अष्टांगिक मार्ग पर चलने को कहा गया है- 1. सम्यक् दृष्टि : बुद्ध ने चार आर्य सत्यों की घोषणा की थी, अर्थात् दुःख का कारण, दुःख का दमन तथा दुःख के दमन के उपाय। इन चार आर्य सत्यों का ज्ञान प्राप्त करना सम्यक् दृष्टि कहलाता है।
2. सम्यक् संकल्प : सभी प्रकार के भोग-विलास और सांसारिक सुखों की कामनाओं का त्याग करना तथा अपने आपको सुधारने का संकल्प करना सम्यक् संकल्प कहलाता है।
3. सम्यक् वाक् : हमेशा सत्य बोलना और अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर झूठ बोलने से बचना ही सम्यक् वाक् अथवा सम्यक् वचन कहलाते हैं। किसी की निन्दा न करने, कठोर वचनों का प्रयोग न करने और अपशब्दों को मुख से न निकालने से सम्यक् वाक् के पालन में बड़ी सहायता मिलती है।
4. सम्यक् कर्मात्त: इसका तात्पर्य शुभ कर्म करना है। मनुष्य को अच्छे-से-अच्छे काम करना चाहिए और बुरे तथा निन्दनीय कर्मों जैसे-चोरी, जुआ खेलना आदि का त्याग कर देना चाहिए।

5. सम्यक् आजीव : मनुष्य को अपनी जीविका कमाने में पूर्णरूप से ईमानदारी का व्यवहार करना चाहिए। जीविका कमाते समय ऐसे कर्मों से बचना चाहिए, जिनसे दूसरों को हानि पहुँचने की सम्भावना हो और जिनमें हिसा का भी मिश्रण हो ।

6. सम्यक् व्यायाम : सम्यक् व्यायाम का तात्पर्य सम्यक् उद्योग से है। मनुष्य को कुविचारों और दुष्ट प्रवृत्तियों के दमन और सद्विचारों एवं सद्वृत्तियां को पुष्यित तथा पल्लवित करने के लिए सदा सदुपयोग करते रहना चाहिए।

7. सम्यक् स्मृति : इसका तात्पर्य उन सभी अच्छी-अच्छी बातों को याद रखना है, जिन्हें कोई महात्मा बुद्ध के उपदेशों द्वारा ग्रहण कर चुका है। उसे अपने मन, वचन, कर्म और कार्यों पर सतर्क दृष्टि रखनी चाहिए, जिससे वह पथ भ्रष्ट न हो सके।
8. सम्यक् समाधि इसका मतलब यह है कि मन को एकाग्र कर ब्रह्म में लीन होना ही परमानन्द की प्राप्ति है। इसकी चार अवस्थाएं है। इन चार अवस्थाओं को पार करके ही मनुष्य निर्वाण अथवा मोक्ष प्राप्त कर सकता है। गौतम बुद्ध ने अपने उपदेशों में आचरण पर भी बल दिया है। उन्होंने दस आचरणों का -(i) अहिंसा, (ii) सत्य, (iii) अस्तेय (चोरी नहीं करना), (iv) पालन आवश्यक बताया अपरिग्रह (v) ब्रह्मचर्य (vi) नृत्य-गान का त्याग (vii) सुगंधित वस्तुओं का त्याग (viii) असमय भोजन का त्याग, (ix) कोमल शय्या का त्याग, (x) कामिनी-कांचन का त्याग। बौद्धधर्म ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता है। साथ ही, वेदों में भी विश्वास नहीं करता। यह धर्म अनात्मवाद, कर्मवाद और पुनर्जन्म में विश्वास करते हुए जाति प्रथा का विरोधी है। इस धर्म में अहिंसा को परमधर्म तथा जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य निर्वाणप्राप्ति माना गया है।
महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेश सरल तथा साधारण भाषा में दिए तथा वह दार्शनिक जटिलता से दूर रहे। फलतः, इस धर्म का प्रचार द्रुत गति से हुआ।

Q.4. बौद्ध धर्म के पतन के कारणों का वर्णन कीजिए। [2012, 2014, 2017]
Ans. बौद्ध धर्म के पतन के कई कारण थे-
1. हिन्दू धर्म में सुधार : हिन्दू धर्म में बुद्ध को भी अवतार मानकर उसकी भी पूजा अर्चना शुरू कर दी। इनके कुछ सिद्धांतों जैसे सत्य और अहिंसा को ग्रहण कर लिया। ब्राह्मणों एवं हिन्दू विद्वानों के समय पर जागरूक हो जाने के कारण हिन्दू धर्म का विघटन रूक गया। जो लोग हिन्दू
धर्म छोड़कर चले गये थे उसे उन्होंने पुनः स्वीकार कर लिया।
2. बौद्धधर्म का विभाजन : कनिष्क के काल में बौद्ध धर्म का विभाजन हीनयान और महायान के रूप में हो गया था। महायान शाखा में मूर्तिपूजा की छूट थी जिसके फलस्वरूप महायान शाखा की तरफ ज्यादा लोग आकर्षित हुए।
3. बौद्ध मठों में भ्रष्टाचार : मठो में सुख-सुविधाओं के मिल जाने तथा स्त्रियों को भिक्षुणी बनाने की छूट दिये जाने के कारण मठों में भ्रष्टाचार फैल गया। मठ के भिक्षु भिक्षुणी के बीच विषय-वासनाओं में काफी विस्तार हुआ। जिससे समाज पर बौद्ध धर्म के प्रति बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।
4. राजकीय सहायता का न मिलना : कनिष्क की मृत्यु के पश्चात् बौद्धों को राजकीय सहायता मिलनी बन्द हो गई। गुप्त साम्राज्य के आ जाने के कारण हिन्दूधर्म को बढ़ावा मिलना प्रारम्भ हो गया। उधर बौद्ध धनाभाव के कारण अधिक दिनों तक नहीं चल सका।
5. बौद्धधर्म में जटिलता आना बौद्धों ने हिन्दुओं के कई सिद्धांत ग्रहण कर लिये थे। जनसाधारण की भाषा को छोड़कर वे संस्कृत में साहित्य रचना करने लगे थे। अतः यह धर्म जनता की समझ से बाहर होने लगा था।
6. हिन्दू उपदेशों का आना: कुमारिल भट्ट और शंकर जैसे हिन्दू विद्वानों के मैदान में आ जाने से बौद्ध विद्वानों की दाल गलनी बंद हो गई थी।
7. मुसलमानों के आक्रमण : 11वीं, 12वी शताब्दी में महमूद गजनवी और अन्य आक्रमणकारियो ने भारत पर आक्रमण किये। बौद्धों में उनके आक्रमण का मुकाबला करने का साहस न था अतः वे या तो मारे गये, या निकटवर्ती क्षेत्रों जैसे नेपाल, तिब्बत, वर्मा, श्रीलंका आदि में चले गये।

Q.5. महावीर के जीवन एवं उपदेशों पर प्रकाश डालें। [2010, 2012,2018]
(Describe the teachings of Mahaveer Swami.)
Ans. जैन धर्म के संस्थापक महावीर स्वामी थे। परन्तु जैन अनुश्रुतियों के अनुसार जैन धर्म अत्यधिक पुराना है और महावीर स्वामी के पहले भी इस धर्म के 23 तीर्थकर हो चुके थे। महावीर स्वामी इस धर्म के 24 वे तीर्थकर थे जिन्होंने जैन धर्म की बहुत अधिक सेवा की।
वर्धमान का बचपन बड़े ही लाड़-प्यार से राजकुमारी की भाँति व्यतीत हुआ। छोटी उम्र से ही वे पढ़ने-लिखने लग गये थे। थोड़े ही दिनों Srin वे सभी तरह की विद्याओं और शिल्पों में माहिर हो गये थे। उनका विवाह यशोधरा नामक राजकुमारी के साथ हुआ था।

महावीन गृह-जीवन में बँधे नहीं रह सके। वे 30 वर्ष की उर्म में ही घर-बार छोड़कर सन्यासी बन गये। वे अत्यन्त कठोर तपस्या, शारीरिक यन्त्रणा और आत्महनन में विश्वास करने लगे। 12 वर्ष तक उन्होंने इतनी कठिन तपस्या की कि उनका शरीर सूखकर कांटा हो गया। उनकी तपस्या के 13वें वर्ष में उन्हें एक नदी के तट पर शाल-वृक्ष के नीचे केवल्य (निर्मल (ज्ञान) प्राप्त हो गया तब से वे सुख-दुख से सदैव के लिए मुक्त हो गये। उसी समय से वे अर्हत (पूज्य), जिन (विजेता), निर्गन्ध (बन्धन-रहित), महावीर (परम प्रतापी) आदि नामों से विख्यात हुए।
महावीर धर्म प्रचारक के रूप में महावीर जैन धर्म के एक सच्चे प्रचारक थे। उनमें जो : कष्ट सहिष्णुता थी वह सचमुच में अनुपमेय थी। वे हर प्रकार की यातनाओं को झेलते हुए भी जैन धर्म का प्रचार लगन के साथ करते रहे। सच्चा ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद वे कुछ दिनों तक प्रचार के लिये अकेले ही घूमते रहे। परन्तु कुछ ही दिनों के बाद जब वे नालन्दा पधारे तो वहाँ उन्हें घोषाल नामक एक सच्चा साथी मिल गया जो 6 वर्ष तक उसके साथ रहकर धर्म प्रचार करता रहा। धर्म प्रचार के दौरान ही इन दोनों में मत विभिन्नता आ गयी। फलतः दोनों एक दूसरे से अलग हो ‘गये। महावीर 30 वर्ष तक अपने धर्म का प्रचार करते रहे। अन्त में 72 वर्ष की आयु में 527 ईo पूर्व
में वर्तमान पटना जिले के पावापुरी नामक स्थान में इनकी मृत्यु हो गयी।

जैन धर्म के सिद्धांत तथा उपदेश: जैन धर्म का प्रतिपादन पार्श्वनाथ ने किया था। पार्श्वनाथ ने चार सिद्धांत अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह का प्रतिपादन किया था। महावीर ने चार सिद्धांतों में अपना एक सिद्धांत ब्रह्मचर्य भी जोड़ दिया था। महावीर स्वामी की शिक्षाओं में जैन धर्म के मूल सिद्धांत निहित है, जो निम्नलिखित है-

जैनियों के अनुसार प्रत्येक पदार्थ में, चाहे वह पत्थर हो, वृक्ष हो, मनुष्य हो या पशु हो, आत्मा विद्यमान है। इसी कारण वे अहिंसा पर बहुत बल देते है और इस बात का प्रयत्न करते है। कि किसी जीव को कष्ट न पहुँचे और उसकी हत्या न हो। महावीर ने सिखाया कि सम्यक् विश्वास, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् आचार वे साधन है। जिनके द्वारा कोई भी व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है। जैन धर्म की पाँच मुख्य शिक्षाएँ है- किसी जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिए. • चोरी नहीं करना चाहिए, • असत्य नही बोलना चाहिए, अपवित्रता से बचना चाहिए, • संपत्ति का संचय नहीं करना चाहिए।
महावीर को यज्ञों और वेदों में आस्था नही थी। जैन धर्म में कर्मकाण्ड और आचार कर्म के कोई निर्धारित नयिम नहीं है। इसमें सदाचार और सद्व्यवहार पर बल दिया गया है। बाद में चलकर जैन लोग दो सम्प्रदाय-श्वेताम्बर और दिगम्बर में बँट गये। श्वेताम्बर सफेद कपड़े पहनने लगे और दिगम्बर आकाश को ही अपना वस्त्र समझकर नग्न रहने लगे।

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